Wednesday, November 19, 2008

हिन्द देश के निवासी...

[दृश्य: पहला]
दो लोग परस्पर लड़ रहे हैं तभी कोई तीसरा वहां आ जाता है, फिर कोई चौथा। और आगन्तुक इस बात पर चर्चा शुरु कर देते हैं कि कौन सही है, कौन गलत !!
ऐसी विशिष्टता का धारक शहर है- कोलकाता

[दृश्य: दूसरा]
दो लोग परस्पर लड़ रहे हैं एवं कोई तीसरा व्यक्ति वहां आता है, उन दोनों को लड़ते हुए देखता है और टहलने लगता है।
ऐसी विशिष्टता का धारक शहर है- मुम्बई

[दृश्य: तीसरा]
दो लोग परस्पर लड़ रहे हैं एवं कोई तीसरा जना आता है और सुलह कराने की कोशिश करता है । तब पहले वाले दोनों अपना लड़ना भूलकर उस तीसरे को पिटना शुरु कर देते हैं ।
भाईयों ऐसा "दिल्ली" में ही हो सकता है ।

[दृश्य: चौथा]
दो लोगों में भयानक लड़ाई हो रही है, भीड़ उनदोनों का लड़ना देखने के लिए इर्द-गिर्द इकठ्ठा हो गई है । एक अन्य व्यक्ति धीरे-धीरे आता है और चुपचाप अपनी दुकान खोल लेता है ।
भाईयों यह शहर "कर्णावती/अहमदाबाद" है ।

[दृश्य: पाँचवां]
दो लोग लड़ रहे हैं, एक तीसरा व्यक्ति उनकी लड़ाई को देखता है । एवं उस लड़ाई को रोकने हेतु एक सॉफ़्टवेयर प्रोग्राम को डेवलप करने की कोशिश करता है किन्तु लड़ाई फिर भी बन्द नहीं होती । कारण कि उस प्रोग्राम में बग है ।
लोगों ! यह शहर "बंगलुरु" है ।

[दृश्य: छठा]
दो लोग लड़ रहे हैं । भीड़ उनकी लड़ाई को देख रही है । एक अन्य साहब आते हैं और बड़े ही नम्र अंदाज में कहते हैं- "अन्ना ! बंद करो ये बेवकूफ़ी ।" और इतना कहते ही लड़ाई थम जाती है ।
लोगों ! यह शहर "पहले का मद्रास और अभी का चेन्नई" है ।

[दृश्य: सातवां]
दो लोग लड़ रहे हैं । अचानक दोनों ने "टाइम-आउट" लिया और अपने मित्रों को मोबाइल से कॉल करने लगे । कुछ देर बाद पचास के लगभग लोगों में लड़ाई हो रही है ।
दोस्तों !! "पंजाब" में आपका स्वागत है ।

[मित्रों, इसे चाय के साथ "कुरकुरे" के रूप में ही ग्रहण करें । बाकी तो सब ठीक ही है....हिन्द देश के निवासी, सभी जन एक हैं । रंग-रूप वेश-भाषा चाहे अनेक है ।]

Tuesday, November 18, 2008

दिनकर की कुछ प्रेरक पंक्तियां

वैसे तो भारतीय हिन्दी साहित्य को कवियों की एक लंबी शृंखला ने सम्पन्न किया है किन्तु उन सबों में दिनकर की एक अलग ही बात है। आइए, उन्हीं के काव्य-ग्रन्थों में से चयनित कुछ पुष्पों की सुगन्ध को ग्रहण करते हैं-

[1]
तोड़ी प्रतिज्ञा कृष्ण ने, विजयी बनाने पार्थ को
अघ है न क्या, नय छोड़ना लखकर, स्वजन के स्वार्थ को । (प्रणभंग से...)

[2]
रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। (हिमालय, रेणुका से...)

[3]
हटो व्योम के मेघ, पन्थ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं।
"दूध, दूध" ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं। (हाहाकार, हुंकार से...)

[4]
प्यारे स्वदेश के हित अंगार मांगता हूं।
चढ़ती जवानियों का शृंगार मांगता हूं। (आग की भीख, सामधेनी से...)

[5]
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृंगार सजाती है,
तो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। (जनतन्त्र का जन्म, नील कुसुम से...)

[6]
कहो, मार्क्स से डरे हुओं का, गाँधी चौकीदार नहीं है,
सर्वोदय का दूत किसी संचय का पहरेदार नहीं है। (काँटों का गीत, नील कुसुम से...)

[7]
वज्र की दीवार जब भी टूटती है,
नींव की यह वेदना विकराल बनकर छूटती है,
दौड़ता है दर्द की तलवार बनकर,
पत्थरों के पेट से नरसिंह ले अवतार। (नींव का हाहाकार, नील कुसुम से...)

[8]
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत सरल हो। (कुरुक्षेत्र से...)

[9]
पापी कौन ? मनुज से उसका न्याय चुराने वाला?
या कि न्याय खोजते विघ्न का शीश उड़ाने वाला? (तृतीय सर्ग, कुरुक्षेत्र से...)

[10]
जिसने श्रम जल दिया, उसे, पीछे मत रह जाने दो।
विजित प्रकृति से सबसे पहले उसको सुख पाने दो।
जो कुछ न्यस्त प्रकृति में है, वह मनुज मात्र का धन है।
धर्मराज, उसके कण-कण का अधिकारी जन-जन है। (सप्तम सर्ग, कुरुक्षेत्र से...)

कुछ पंक्तियां : रश्मिरथी से


हालांकि दिनकर की "रश्मिरथी" अपने-आप में एक सागर है, जिसमें गोता लगाने पर अमृत-बूंदें ही हाथ लगनी है। सात सर्गों में निबद्ध यह रचना अपने जन्मकाल से ही पाठकों में लोकप्रिय है। दिनकर अपनी इस रचना रूपी संतति को जन्म देकर संसार में अमर हो गये। थोड़ा लिखना बहुत समझना को मानते हुए मैं इस कालजयी रचना के तीसरे सर्ग की कुछ पंक्तियां टंकित करना चाहूंगा जो कि हमारे राज्य बिहार के छठी या सातवीं कक्षा की हिन्दी-पुस्तक में "कृष्ण की चेतावनी" शीर्षक से शामिल थी/है ।

वर्षों तक वन में घूम-घूम,बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

‘हित-वचन नहीं तूने माना,मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-शृगाल सुख लूटेंगे,सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

(http://surajbkhatri.blogspot.com का चित्र के लिए आभारी हूं।)

सत्यमेव जयते !!

हर बात में एक बात छुपी होती है और हर बात से एक बात निकलती है । उसी बात में सत्य का भी आश्रय होता है और वही बात झूठ का राजमहल भी है । अब बातों का क्या है !! उन्हें तो बस अपनी बात से ही बात है । और वो बात ही क्या जो किसी दूसरे बात को ना शुरु कर पाए । यह बात ही तो है,जिसके द्वारा निर्दोष भी फांसी पर चढ़ जाता है और आतंकवादी भी सरकारी दामाद बन कर सारे मजे लूटता है । इसी बात के दम पर तो हमारे राजनेता कोटि-अरबों के वारे-न्यारे कर लेते हैं । अब यह बात न हो तो सोचिए कि क्या होता ! खैर, इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन क्या बात करता है। भई, हम तो बिना बात के ही ये बात ले बैठे और जब ले हीं बैठे हैं तो फिर ब्लॉग पर आने के अपने वजूद को बताते चले जाएं। नहीं तो होगा यह कि आप टिप्पणी के रूप में बिना बातों के ही ढेर सारी बात मुझे सुना जाएंगे। तो चलिए इसी बात पर हम आपको एक छोटी बात भी बताते चले जाएं, जो मैंने अपने भैया के एक मित्र के मुंह से सुना था कि......

सूर्य छिपे अदरी-बदरी, अरु चन्द्र छिपे अमावस आए,
पानी की बूंद पतंग छिपे, अरु मीन छिपे इच्छाजल पाए,
भोर भए तब चोर छिपे, अरु मोर छिपे ऋतु सावन आए,
कोटि प्रयास करे किन कोई, कि सत्य का दीप बुझे ना बुझाए ॥

Monday, November 17, 2008

मां थावेवाली स्थल: गोपालगंज का गौरव

अपने जनपद के बारे में बताने के क्रम में मैंने "मां थावेवाली" की चर्चा की थी, इस समय उन्हीं "मां थावेवाली" के बारे में थोड़ा-बहुत लिख रहा हूं....

बिहार प्रान्त के गोपालगंज शहर से मात्र ६ किलो मीटर की दुरी पर सिवान जानेवाले राजमार्ग पर थावे नामक एक जगह है, जहां "मां थावेवाली" का अति प्राचीन मंदिर है । मां थावेवाली को सिंहासिनी भवानी, थावे भवानी और रहषु भवानी के नाम से भी भक्तजन पुकारते हैं।

कामरूप (असम) जहां कामख्यादेवी का बड़ा ही प्राचीन और भव्य मंदिर है, मां थावेवाली वहीं से थावे (गोपालगंज) आयीं, इसीकारण मां को "कामरूपरू-कामख्या देवी" के नाम से भी जाना जाता है। थावे में मां कामाख्या के एक बहुत सच्चे भक्त रहषु स्वामी थे किन्तु हथुआ (आधुनिक समय में गोपालगंज जिले का एक अनुमंडल, किन्तु मध्यकाल का एक विख्यात राज्य। तत्कालीन समय में थावे उसी राज्य के अन्तर्गत आता था।) के तत्कालीन राजा मनन सिंह की नजर में रहषु स्वामी एक ढोंगी भगत मात्र ही थे। अचानक एक दिन राजा मनन सिंह (जो कि अपनी राजसी मद में चूर रहता था) ने अपने सैनिकों को रहषु स्वामी को पकड़ लाने का आदेश दिया एवं उनके आने पर राजा ने कहा कि यदि वाकई मां का सच्च भक्त है तो उन्हे मेरे सामने बुला या फिर मृत्युदण्ड के लिए तैयार रह। रहषु स्वामी के द्वारा बार-बार समझाने पर पर भी राजा मनन सिंह नहीं माना एवं कहने लगा कि यदि तुने मां को नहीं बुलाया तो तेरे साथ थावे की पूरी जनता को भी मृत्युदण्ड दिया जाएगा। रहषु जी के पास मां जगद्धात्री को बुलाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा । रहषु स्वामी जी मां को सुमिरने लगे तब मां दुर्गा कामाख्या स्थान से चलकर कोलकाता (काली के रूप में दक्षिणेश्वर स्थान में प्रतिष्ठित), पटना (यहां मां पटनदेवी के नाम से जानी गईं), आमी (छपरा जिला में मां दुर्गा का एक प्रसिद्ध स्थान) होते हुए थावे पहूंची और रहषू स्वामी के मस्तक को विभाजित करते हुए साक्षात्‌ दर्शन दीं ।
मां ने जिस जगह पर दर्शन दिया वहां एक भव्य मन्दिर है तथा कुछ दूरी पर रहषु भगत जी का मन्दिर भी स्थापित है। जो भक्तजन मां के दर्शनों के लिए आते हैं वो रहषु स्वामी के मंदिर भी जरुर जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि बिना रहषुजी का दर्शन किये आपकी यात्रा पूर्ण नहीं मानी जाती। इस मंदिर के पास ही वर्तमान में भी राजा मनन सिंह के महल का खंडहर दिखाई देता है।

मां के बारे में लोग कहते हैं कि मां थावेवाली बहुत दयालु और कृपालु हैं और अपने शरण में आये हुए सभी भक्तजनों का कल्याण करती हैं। हर सुख-दुःख में लोग इनके शरण में आते हैं और मां किसी को भी निराश नहीं करती हैं। किसी के घर शादी-विवाह हो या दुःख-बीमारी या फिर किसी ने गाड़ी-घोडा खरीदी तो सर्वप्रथम याद मां को ही किया जाता है। देश-विदेश में रहने वाले लोग भी साल-दो साल में घर आने पर सबसे पहले मां के दर्शनों को ही जाते हैं।
मां थावेवाली के मंदिर की पूरे पूर्वांचल तथा नेपाल के मधेशी प्रदेश में वैसी ही ख्याति है, जैसी मां वैष्णोदेवी की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर। वैसे तो यहां भक्तजनों का आना पूरे वर्षभर चलता रहता है किन्तु शारदीय नवरात्रि एवं चैत्रमास की नवरात्रि में यहां काफ़ी अधिक संख्या में श्रद्धालु आते हैं। एवं सावन के महीने में बाबाधाम (देवघर में स्थित) जाने वाले कांवरियों की भी यहां अच्छी संख्या रहती है।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि इतना महत्त्वपूर्ण स्थल होने के बाद भी यह स्थान विकास के मामले में राज्यसरकार के द्वारा उपेक्षित रह गया। सम्प्रति विकास की थोड़ी बयार यहां भी दिखने लगी है, किन्तु प्रतिशतता अभी भी बहुत कम है। आशा है आने वाले आगामी वर्षों में यह स्थान आम जनता एवं प्रशासन के सहयोग से समुचित विकास करेगा एवं "मां थावेवाली" का पवित्र स्थल  विश्व-मानचित्र पर अपनी साख बना लेगा। किन्तु अपने ब्लॉग पर लिखते हुए मुझे इस बात की थोड़ी खुशी है कि वहां के कतिपय लोग इस स्थल की पहचान बनाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं, जिनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण नाम है श्री अजीत तिवारी जी का जिनके अथक प्रयासों से अंतरताने पर एक वेबसाईट बना जो बहुत कम समय में काफ़ी लोगों को इस स्थल की महत्ता से अभिज्ञात करा चुका है। साइट का वेबपता है- http://www.jaimaathawewali.com/

जय थावेवाली माई की !

(यह लेख श्री अजीत तिवारी जी के भोजपुरी लेख का हिन्दी अनुवाद ही है किन्तु कुछ जगहों पर मौलिकता को लिए हुए है, मूल भोजपुरी लेख हेतु यहां क्लिक करें ।

जे.एन.यू. की शान: पेरियार छात्रावास

जे.एन.यू. की धरती पर जिस जगह ने सर्वप्रथम मुझे प्रश्रय दिया वो कोई और नहीं जे.एन.यू. के दक्षिणापुरम खण्ड में स्थित "दक्षिण भारत की नदी- पेरियार" के नामराशिवाला पेरियार छात्रावास ही है। यह छात्रावास बालू-सीमेन्ट-छड़ इत्यादि से मिलकर बना मात्र कोई भवन नहीं है अपितु जीवन्तता की प्रतिमूर्ति है । एक बार जो इसके अहाते में प्रवेश कर गया, बस समझो कि यहीं का हो गया । इसके बारे में यह भी कहा जाता है कि जे.एन.यू. की राजनीति की धुरी यही है, खासकर "राइट च्वाइस" वालों का तो यह गढ़ ही है। 
यह छात्रावास जे.एन.यू. के केन्द्र में होने से सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। इसके ठीक सामने बहुतों की स्पन्दन-स्थली "गोदावरी देवी" विराजमान हैं। एवं बगल में ही छोटे भाई "कावेरी जी" विराजते हैं । इनके पास ही "नीलगिरी" अथवा "गोदावरी" ढाबा (लोग इसके पहले नाम से कम ही जानते हैं) है, जो अपनी सड़ी-गली चाय के साथ घटिया पकौड़ों-समोसों के लिए कुख्यात है। हालांकि अधिकृत रूप से लोग इस ढाबे पर चाय पीने के लिए ही जाते है किन्तु (छुपी हुई बात जो सबको ही पता है..) अनधिकृत रूप से "आंखों की बीमारी" दूर करना ही सर्वप्रमुख उद्देश्य होता है।

[ये जो चित्र है ना, वो "गोदावरी" का है। ठीक इसके सामने वाला होस्टलवा मेरा है। अब ये मत पूछिएगा कि अपने होस्टल के चित्रवा के बदले में काहे गोदावरी का चित्र इहां दिया हुआ  है।] 

स्पेनिश अध्ययन केन्द्र

स्पेनिश, पुर्तगाली, इटालियायी एवं लातिन अमेरिकी अध्ययन केन्द्र (CSPILAS) जो कि SLL&CS के अन्तर्गत आता है में विधिवत अध्ययन-अध्यापन  लगभग तीन दशक पहले प्रारंभ हुआ । यह केन्द्र अपने छात्रों एवं अध्यापकों के द्वारा केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में एक अलग एवं उच्च स्थान रखता है। यह केन्द्र भाषा, भाषाविज्ञान एवं स्पेन एवं अन्य स्पेनिश-भाषी देशों के साहित्य,संस्कृति एवं सभ्यता का विशिष्ट प्रकार से अध्ययन एवं उसपर शोधकार्य कराने के लिए प्रसिद्ध है। यह केन्द्र अन्तरविषयक अध्ययन यथा इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र एवं सामाजिक-राजनैतिक इत्यादि विषयों का तुलनात्मक अध्ययन करने-कराने हेतु मशहूर है । इस अध्ययन केन्द्र का बहुत सारे विदेशी विश्वविद्यालय/संस्थानों से शोध एवं विकास कार्यक्रम के तहत गठजोड़ है एवं समय-समय पर यहां "सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम" के तहत विदेशी विद्वानों का आगमन होता रहता है एवं यहां के छात्र उन देशों को जाते रहते हैं ।
वर्तमान में इस संकाय के अध्यक्ष प्रो. एस. पी. गांगुली हैं, जिनकी दक्षता "लातिन अमेरिकी समाज एवं साहित्य" और "भारत-स्पेनी स्वागत अध्ययन" विषयों में है। इनके अतिरिक्त प्रो. अनिल ढींगरा, ए. चट्टोपाध्याय, इन्द्राणी मुखर्जी (दोनों एसोसिएट प्रोफेसर), मीनू बख्शी, सोवोन कु. सान्याल, राजीव सक्सेना, मीनाक्षी सुन्द्रियाल एवं गौरव कुमार (पूर्वोक्त पांचों एसिस्टेन्ट प्रोफ़ेसर)हैं , जिनके द्वारा यह केन्द्र गौरवान्वित हो रहा है।
इस केन्द्र में नियमित बी.ए. एवं एम.ए. के अतिरिक्त एम.फिल. और पी.एच.डी. निम्नलिखित शोधक्षेत्रों में करायी जाती है-

* स्पेनी एवं लातिन अमेरिकी साहित्य
* भाषाविज्ञाना ( ध्वनिशास्त्र एवं कोशशास्त्र सहित)
* अनुवाद एवं व्याख्या
* संस्कृति एवं सभ्यता
* साहित्य-सिद्धान्त
* तुलनात्मक साहित्य
* साहित्यिक आलोचना का इतिहास
* ब्राजीलियायी अध्ययन